क्या थी खुशियां क्या थे गम,
खुद को ही न पहचान सके,
जब टकराये खुद से ही हम।
आंखें भूल गई ज्योती,
टूटे माला के मनको-सी,
टपक रहे मन के मोती।
सपने रह-रह तङपाते हैं,
अफसाने....बस बन जाते हैं,
जैसे कोरे कागज में रखी हो,
अपनी कोरी बात कोई।
दीवारों मे चिन जाए यादें,
कोई तो ऐसा जतन करें,
बहल जाएगा, ऐ “तारिका”
फिर कुछ मीठा सुन करके।