Monday, April 27, 2009

कभी वक्त मिले मुझसे, तुम मिलने आ जाना.....

जज़्बात महोब्बत के,
सीने में धङकते हैं,
फुरसत में कभी तुम भी,
इससे सुनने आ जाना।
मैं तन्हा हूं फिर भी,
कुछ बाते करती हूं,
कभी वक्त मिले,
मुझसे,
तुम मिलने आ जाना।



रह-रह के मचलता र्है,
आंखों में जो बसता है,
वो सपना बनकर के,
तुम मुझको सुला जाना।
मैं नींद में रहकर भी,
कुछ देखा करती हूं,
तुम पास मेरे आकर,
कभी मुझको जगा जाना।



फिर खोल के जुल्फों को,
सुलझाने बैठूं तो,
तुम अपने हाथों से,
इनको सहला जाना।
इन काले केसू में,
कुछ सूनापन सा है,
एक फूल महोब्बत का,
चुपके से लगा जाना।



बारिश के मौसम में,
जब भीग रहे हो तुम,
बस अपना समझकर के,
मुझे पास बुला लेना,
मैं आदत से अपनी,
कुछ शरमा जाऊं तो,
तुम बाहों में भरकर,
मुझे गले लगा लेना।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)

Saturday, April 25, 2009

ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए.....

कहने को तो कहते हैं,
हम तोङ के लायेंगे,
इन चांद सितारों को,
भर देंगे दामन हम,
जों मोतियों की बारिश हो।



पत्थर को तराशेंगे,
नाखूनों से अपने,
जब तक न बन जाए,
मूरत मेरे माही की।



चुन लेंगे फूलों को,
तेरी महक घुली जिनमें,
फिर बन जोगी तेरा,
तेरे नाम की माला को,
होठों में फिरायेंगे।
...........
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र- साभार गूगल)

Tuesday, April 14, 2009

मेरी कल्पनाएं और मेरे शब्द...

चांद को चांद न कहूं,
रजनी का चिराग कहूं,
तारों को तारे न कहूं,
निशा की बारात कहूं।



देख कर यूं पलटना,
ये लहरें नहीं,
सागर की अंगड़ाई हैं,
दर्द के भंवर ने जैसे,
कहीं गर्म हवा सहलाई है।


पक्षियों का चहकना भी,
हो जैसे मीठा राग कोई,
एक कतार में बैठे हो,
कई कलाकार कोई।



नदिया भी जैसे,
आईना हो कोई,
जिसपे संवर कर,
प्रकृति भी इतराती है
झूम कर आती है जब,
काली बदरा,
देखो कैसे,
शरमा के बरस जाती है।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)

Sunday, April 5, 2009

प्रिय.......तुम मन को छू लो।





प्रिय,
तुम मन को छू लो,
मैं अंतर्मन को छू लूंगी,
पास तुम्हारे जितनी दुनिया,
रंग खुशियों के भर दूंगी।

पंख लगे हर सपने में,
जब आभास तेरा, बने पंख मेरे,
चुन लूं हर वो तारा जिसपे,
गुदे हुए हैं नाम तेरे।


सोज़ तुम्ही मेरा, साज़ भी तुम हो,
मेरे दिल की हर बात भी तुम हो,
सांसों से जो दिल तक जाती,
वो हसरत, वो चाहत भी तुम हो।


आहिस्ता-आहिस्ता से तैर रहे हैं,
ख्वाब तुम्हारे, इन आंखों में
बंद किये बैठी हूं पलकें,
रात समझ के सहर को मैं।
.............
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र- साभार गूगल)

Thursday, April 2, 2009

माता तेरे रुप हजार तू ही करती बेङा पार......





तू ही अम्बे तू जगदम्बे,
माता तेरे रुप हजार,
तू ही काली तू ही दुर्गे,
तू ही करती बेङा पार।


तेरे दर्शन के अभिलाषी,
आंखे दर्शन के बिन प्यासी,
प्यास बुझादे अबकी बार,
माता तेरे रुप हजार,
तू ही करती बेङा पार।


तुम हो वैष्णों पहाङा वाली,
मां, तुम सब भक्तों को प्यारी,
प्यार लुटादो तुम भी आज,
माता तेरे रुप हजार,
तू ही करती बेङा पार।


तुम ही वीणा की तारों में,
तुम ही राग और मल्हारों में,
तुम ही बनी, प्रकृति की आवाज,
माता तेरे रुप हजार,
तू ही करती बेङा पार।


सागर की लहरों में तुम हो,
ठण्डी पवन बहाती तुम हो,
सृष्टी रचना में, तुम हो सार,
माता तेरे रुप हजार,
तू ही करती बेङा पार।
.................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र -साभार गूगल)