Sunday, December 14, 2008

फिर मूक बने हो तुम...

बाहर की गन्दी नजरों से,
घर अपना ही जला बैठे,
फिर, मूक बने हो तुम,
नज़रें अपनी ही झुका बैठे,

इक मां की ही,
पैदाइश होकर,
छीन रहे किसका दामन,
अपने चेहरे पर आतंकी का,
क्यों ये चेहरा लगा बैठे,

बात नहीं किसी धर्म की है,
न ही रंग का भेद यहां,
ये बात है उस मां की,
और उस मिट्टी की,
जिसका दामन तुम,
खुद अपने हाथों जला बैठे।।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, December 2, 2008

कितना भी आंसुओं को रोक लें.......

जिन्दगी अब मुझे,
यूं भाती नहीं,
कितना भी आंसुओं को रोक लें,
हंसी आती नहीं,
हर मोङ पर सिर्फ,
दर्द और तन्हाईयां हैं,
जिधर भी नज़र डाले,
तङपती परछाइयां हैं,
वो भी (परछाइयां) मुझे देखकर,
मुझसे ही दूर जाती रहीं,
कितना भी आंसुओं को रोक लें,
हंसी आती नहीं,
जिन्दगी अब मुझे,
यूं भाती नहीं।
...........
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र-साभार गूगल)

Friday, November 21, 2008

क्यों तुम मुझसे रुठे हो।





पापा....क्यों मुझसे रुठे हो,
क्या...मैं नहीं हूं तुम्हारी,
मां.....क्यों ना मुझसे बोल रही,
जब मिली तुमसे ही सांस हमारी।।


क्यों ना अपनाते मुझको,
क्यों ना होती परवाह मेरी,
क्यों ना तुम भैया के जैसे,
मुझको भी लोरी सुनाती हो।।

दो जवाब, इन कलियों को,
क्यों न खिलने देते तुम,
मन में लिए प्रश्न कई,
पूछ रहा अधखिला “वो” फूल।।
..........

प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- साभार गूगल)

Wednesday, November 19, 2008

बाकि...गंगा मैया पर छोङ दो।



पाप करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
खाओ पियो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।
ऐश करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
गंद करो तुम, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।
शहर का कचरा लाकर,
गंगा मैया पर छोङ दो,
फूंक दो मुझको, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो,
हर-हर गंगे बोल, बाकि,
गंगा मैया पर छोङ दो।।

...............


प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)

Monday, November 17, 2008

कोई पूछे अगर...मैं कौन हूं....


कोई पूछे अगर, तो क्या जवाब दूं,
कि मैं कौन हूं ,और कंहा हूं मैं ?

मैं नदी हूं, जो है बह रही,
लिए संग अपने, कई सफर,
चली जा रही, बस तलाश है,
कहीं पर मिले, उसे सागर लहर।

मैं ख्वाब हूं, जो बुना आस ने,
लिए हर ख्वाहिश को, पास में,
चंद लम्हें, और बस,
छू लूं मैं, सारे हाथ से।
मैं परिंदा हूं, जिसे उङने की आरज़ू,
गिर-गिर के, संभलना सीखती,
पंख फङफङा लूं, बस अगर,
पहुंचूं गगन के, छोर तक।

मैं शब्द हूं, जो अभी निशब्द है,
रंगो का है, उसे इंतज़ार,
फूलों की बारिश हो, बस अगर,
बन जाऊं, मोतियों सी लङी।
....................
प्रीती बङथ्वाल ‘तारिका’
(चित्र-साभार गूगल)

Saturday, November 8, 2008

आस के पंखों को फैलाऊं तो.....

आस के पंखों को,
फैलाऊं तो डर लगता है,
कंही गिर न जाऊं मैं,
फिर उन्हीं तन्हाईयों में,
मैं अन्धेरों से,
कभी डरती नहीं,
डर जाती हूं उजालों से,
क्योंकि उजालों में,
मेरा ख्वाब,
कहीं, होले-होले से,
पिघलता है,
आस के पंखों को,
फैलाऊं तो, ‘तारिका’
न जाने क्यों,
डर लगता है।
.............
प्रीती बङथ्वाल तारिका
(चित्र - सभार गूगल)

Friday, November 7, 2008

ये 'जरुरी' तो नहीं...

हम जो सोचे वही हो,
ये 'जरुरी' तो नहीं,
आज जो है वो कल भी हो,
ये 'जरुरी' तो नहीं।

सांसे कब किसे थाम ले,
जिन्दगी बन कर,
जिन्दगी भी सांसे थाम ले,
ये 'जरुरी' तो नहीं।

खिले एक फूल जब,
भंवरा भी एक खिल जाता,
रात को बंद हो,
सुबह वो मिले, ये 'जरुरी' तो नहीं।

वो आईना जो,
हर सूरत को दिखलाता,
दिल भी दिखाये, 'तारिका'
ये 'जरुरी' तो नहीं।
.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - साभार गूगल)

Sunday, November 2, 2008

ख्वाब और जिन्दगी


ख्वाब और जिन्दगी दोनों,
साथ हैं मगर,
रास्ते दोनों के,
जुदा हो गये,
एक बन्द आंखों के तले,
हंसते थे,
दूसरे खुली पलकों पे,
फिदा हो गये,
फिर भी रास्ते दोनों के,
क्यों जुदा हो गये।
.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र-सभार गुगल )

Friday, October 31, 2008

आई दिवाली, गयी दिवाली

आई दिवाली, गयी दिवाली,
खुशीयां भी भर गयी दिवाली,
रंग बिरंगी रंगोली संग,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

लक्ष्मी-गणेशजी को सजा-धजा कर,
लड्डू पेङे की थाल सजा कर,
शंखनाद की गूंज में भर कर,
रोशन-रोशन हुई दिवाली,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

हम भी बोले, आप भी बोले,
एक-दूजे को रस में घोले,
शुभ दिवाली-शुभ दिवाली,
जीवन मीठा कर गयी दिवाली।

...................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र-सभार गुगल)

Friday, October 24, 2008

आ गये त्योहार....

हमारी सोसायटी में हर त्योहार बहुत ही धूम-धाम से और सभी सोसायटी वाले मिलकर मनाते हैं। ये बात वैसे मैंने पहले भी बताई है। इससे त्योहार की खुशी चौगुनी हो जाती है। इस बार हमारी सोसायटी में नवरात्रों के बाद और करवाचौथ से पहले डांडिया प्रौग्राम का आयोजन किया गया। हफ्ते भर पहले से ही ग्रुप में डांस की प्रेक्टिस होने लगी। कुछ पुराने जो कि शुरू से ही इस सोसायटी(जब से बनी है) में रहते हैं उनका एक ग्रुप हुआ, और जो बाद में आए हैं उनका दूसरा ग्रुप बना। ग्लास रूम(सोसायटी के ऑफिस का एक हॉल रूम) प्रेक्टिस के लिए ले लिया गया। समयानुसार बारी-बारी से वहां दोनों ग्रुप अपनी प्रैक्टिस करते थे। खूब मजा आता था, घर का सारा काम निपटा कर हम सब वहां जाने को तैयार रहते थे।
मैं पहले ग्रुप में थी। सबसे पहले गाना सलेक्ट किया गया। हमने सुहाग फिल्म से गाना चुना ‘ओ नाम रे, सबसे बङा तेरा नाम, ओ शेरों वाली’। ये गाना अपने आप में ही पूर्ण लगता है। इसकी शुरुआत जितनी धीरे है अंत उतना ही प्रभावशाली और तेज। डांडिया करने के लिए सही थीम वाला गाना। दूसरे ग्रुप का गाना गुजराती में था, वो गाना भी सुनने में अच्छा था, गाना श्रीकृष्ण भगवान पर था, सो उन्होंने अपने ग्रुप का नाम कृष्णा ग्रुप रख लिया। अब हमें भी अपने ग्रुप का नाम रखना था। बहुत सोचा गया सभी से पूछा गया। सभी ने अच्छे-अच्छे नाम बताये (संस्कृति, संगम, सतरंगी, इन्द्रधनुष, संगिनी) । अंत में सभी संगिनी के लिए सहमत हो गये। नाम बताने के सभी के अपने दृष्टिकोण थे जो सही भी थे लेकिन सभी संगिनी के लिए मान गये। संगिनी का अर्थ सहेली, इसीलिए ये नाम हमसब को पसंद आया।
जिस दिन प्रोग्राम होना था शाम का समय निश्चित किया गया। हमारा ग्रुप, दूसरे ग्रुप से पहले ही पहुंच गया था। सभी गुजराती तरिके से साड़ी पहन, सज-धज कर आये थे। प्रोग्राम थोड़ा देर से शुरू हुआ, धीरे-धीरे लोगों की भीड़ भी बढ़ने लगी थी। बहुत से लोगों के आने के बाद प्रोग्राम शुरू हुआ। शुरूआत अंताक्षरी से हुई, सास-बहू के दो ग्रुप बनाए गये कुछ लोग सास ग्रुप में और कुछ बहू ग्रुप में हो गये। फिर शुरू हुआ वो मुकाबला जिसे देखने के लिए पूरी सोसायटी बैठी हुई थी। वैसे तो ये प्रोग्राम सिर्फ महिलाओं का ही था पर पुरूष वर्ग ने भी इस में जमकर हिस्सा लिया।
अब सवाल हुआ कि डांडिया में कौन सा ग्रुप पहले अपना प्रदर्शन करेगा। हम लोग उन्हें और वो लोग हमें प्रदर्शन करने के लिए कह रहे थे। मतलब ये था कि पहले कोई भी नहीं करना चाहता था। दोनों ही दूसरे ग्रुप को पहले करते हुए देखना चाहते थे। जो ठीक से अपने और उनमें आंकलन कर सकें, कि बेहतर कौन? लेकिन शुरू तो किसी ने करना ही था तो हम लोग आगे आ गये। हमारा ग्रुप पूरे जोश में था।
बीच में कलश सजा हुआ था और उसके चारों और हम गोला बनाकर डांडिया खेलने लगे। हमने जो डांडिया पेश किया उसे देख कर दूसरी टीम ने पहले ही अपने दांतों तले उंगली दवा ली। वहां पर मौजूद लोगों ने भी विजेता हमे करार दे दिया था। लेकिन कोई किसी से कम ना था, टक्कर तो होनी ही थी। अब दूसरे ग्रुप की बारी थी हम सोच के बैठ गए थे कि ये ग्रुप तो समझो गया, जीत हमारी ही होगी क्योंकि हमने कहीं पर भी गलती नहीं की थी। पर दूसरी टीम की काबलियत पर शक करके हम भूल कर रहे थे। दूसरी टीम ने भी जबरदस्त डांडिया किया और हमें ऐसी टक्कर दी कि हमारे हाथ उनकी वाह वाही में खुद ही उठ गए। कई गलतियां की उन्होंने, पर पहली बार की उनकी ये सफलता बताती है कि हमारा वर्चस्व हमेशा नहीं रहने वाला। कम वो नहीं निकले, लेकिन जीत तो हमारी ही होनी थी।

जजों ने फैसला भी हमारे पक्ष में सुनाया पर पहली बार एंट्री करने के कारण बाद में दोनों टीमों को ही जीता करार दे दिया गया। हम भी काफी खुश थे कि चलो ये अच्छा हुआ कि किसी की हार ना ही किसी की जीत हुई। वर्ना पर्व के माहौल में खटास ही हाथ लगती है।

प्रीती बड़थ्वाल

Monday, October 13, 2008

उसकी एक आदत की तरह


सिर्फ आंसू ही रह गये थे,
आंखों में,
उसकी एक आदत की तरह,
वो जब भी मिला तन्हाई में,
मुझसे,
तो बात हुई,
एक शिकायत की तरह,

न वो समझ सका था मुझे,
न मैं ही समझ रही थी,
वक्त ने भी समझाया हमें तो,
सिर्फ एक आंसू की तरह,
वो जब भी मिला तन्हाई में,
मुझसे,
तो बात हुई,
एक शिकायत की तरह।
..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - सभार गुगल )

Tuesday, October 7, 2008

जगत जननी मां अम्बे

जगत जननी, जगत अम्बे
तू है मां वर दायनी,
सृष्टी की रचना में तू मां,
तू ही सृष्टी नाशनी।

तू ही अम्बर ,तू धरा मां,
प्रकृति ये तेरी गोद है,
दे रही आंचल, हवा मां,
तेरी नजर, चारों और है।

कर दया मां, हम हैं नादा,
भूल हुई जो माफ करना,
तू है ममता की धनी मां,
हम तो तेरे फूल है।
.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(आप सभी को नवरात्रों की शुभकामनाऐं। मां दुर्गा सभी को अपना ममता रुपी आशिर्वाद दें यही मां अम्बे से प्रार्थना करती हूं )
(चित्र - सभार गुगल)

Thursday, October 2, 2008

मोम की तरह,आंखों से पिघल जाएंगे

पिछले कई जख्मों को,
दामन में छुपाए बैठी थी,
वो तन्हाई, जो रास्तों पर,
नजरें लगाए बैठी थी,

शायद इस इन्तज़ार में,
कि कभी तो ये भी भर जाएंगे,
उन्हीं रास्तों पर शायद,
वो ख्वाब फिर नजर आएंगे,

जिनको खो कर वो,
एक बार तन्हा हुई थी,
न पाकर उन्हें आंखों में,
फूट-फूट कर रोयी थी,

पर इस बार न जाने क्यों,
उसे एक यंकी था,
शायद उसकी आंखों में,
वो ख्वाब, फिर कंही था,

ऐसा न हो कि,
इस बार भी वो टूट जाए,
उसके थमें आंसू,
इस बार न बिखर जाए,

इस बार जो बिखर गये तो,
कभी उठ नहीं पाएंगे,
मोम की तरह, वो भी,
आंखों से पिघल जाएंगे,

इसलिए शायद वो आज,
यूं सहमी हुई लगी थी,
वो तन्हाई, जो रास्तों पर,
नजरें लगाए बैठी थी,
पिछले कई ज़ख्मों को,
दामन में छुपाए बैठी थी।
................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र - सभार गुगल )

Sunday, September 28, 2008

टूटे फूलों से भी महक पाओगे


दर्द में भी जो हंसना चाहो,
तो हंस पाओगे,
टूटे फूलों को भी पानी में डालो,
तो उनमें भी महक पाओगे।

जिन्दगी किसी ठहराव में,
कंही रुकती नहीं,
हिम्मत जो करोगे तो
मन्जिल में दोस्तों को पाओगे,
टूटे फूलों को भी पानी में डालो,
तो उनमें भी महक पाओगे।


अरमान कभी पूरे नहीं होते,
जो देखे जाते हैं,
वो भी आंसुओं के साथ,
आंखों से निकल जाते हैं,
फिर भी, किसी की खातिर,
खुद को सवांरोगे तो,
सराहे जाओगे,
टूटे फूलों को भी पानी में डालो,
तो उनमें भी महक पाओगे।
..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका "
(चित्र-सभार गुगल)

Thursday, September 25, 2008

अजनबी ही रहने दो

अजनबी ही रहने दो,
अब ये रास्ते हमारे,
खुद लहू हो जाएंगे,
जो अब, हम इसे सवारें,
अजनबी ही रहने दो,
अब ये रास्ते हमारे।

बिखरे हुए ख्वाबों की,
एक किताब लिख रही थी,
ज़मी से लेकर उन रास्तों की,
हर बात लिख रही थी,
उनमें कुछ लम्हों को हमने,
आंसुओं में भी उतारे,
अजनबी ही रहने दो,
अब ये रास्ते हमारे।

दिल जानता था वो लम्हा,
मेरे आस-पास ही कहीं था,
वो, न दूर होगा मुझसे,
इस बात का यंकी था,
पर फिर भी उसके एहसास को हमने,
अन्धेरों में गुजारे,
अजनबी ही रहने दो,
अब ये रास्ते हमारे।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र-सभार गुगल)

Monday, September 22, 2008

जब भी बुलाओगे मुझे

मैं एक आंसू हूं,
ठहर नहीं पाऊंगी,
जब भी बुलाओगे मुझे,
मैं पास आ जाऊंगी।

दर्द की तन्हाइयों में हमेशा,
रास्ते पे नजर आऊंगी,
मैं एक आंसू हूं,
ठहर नहीं पाऊंगी।

अपनी खुशियों में,
न शामिल कर सकोगे मुझे,
लेकिन गमों में,
मैं साथ निभाऊंगी,
मैं एक आंसू हूं,
ठहर नहीं पाऊंगी,
जब भी बुलाओगे मुझे,
मै पास आ जाऊंगी।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- सभार गुगल)

Tuesday, September 16, 2008

फिर मुझे ख्वाब आया है...



मेरे ख्वाब ने ही,
मुझको रुलाया था,
आज, एक सफ़र के बाद,
फिर मुझे ख्वाब आया था,
मुस्कुराते उसके कदम,
मुझसे ही पनाह मांगते थे,
मुझको रुलाकर गये थे,
तभी तो हंसना जानते थे,
बन्द पलकों के तले,
आज उनकों, फिर सुलाया था,
आज, एक सफ़र के बाद,
फिर मुझे ख्वाब आया था।
.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(फोटो-सभार गुगल )

Sunday, September 14, 2008

मैं तो, सिर्फ काग़ज हूं

इतना मत रुलाओ कि,
मुश्किल हो हंस पाना,
मैं तो, सिर्फ काग़ज हूं,
मुझे आंसुओं के सागर में,
मत डुबाना।

मुझपे जो लिखी थी,
कभी कहानी तुम ने,
तुमसे गुज़ारिश है,
उसे फिर न दोहराना,
इतना मत रुलाओ कि,
मुश्किल हो हंस पाना।

खा़मोश पलकें थी,
दर्द की तन्हाईयों में,
कोई ख्वाब टूटा था शायद,
इन आईनों में,
ख्वाब में आके जरा तुम,
तन्हाईयों को सहलाना,
इतना मत रुलाओ कि,
मुश्किल हो हंस पाना।
..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(फोटो-सभार गुगल )

Friday, September 12, 2008

मुझे इंतज़ार है फिर भी

चिराग़ जल के मेरा,
बुझ जाएगा,
मुझे इन्तज़ार है फिर भी,
कि तू आएगा,
खुली आंखों में न सही,
बन्द पलकों के तले,
वो एक आंसू की बूंद-सा,
ठहर जाएगा,
मुझे इन्तज़ार है फिर भी,
कि तू आएगा।
न इस तरहा से मुझे,
भूल जाने की कौशिश कर,
मैं तेरा ही ख्वाब हूं,
तू मुझे भूल नही पाएगा,
मुझे इन्तज़ार है फिर भी,
कि तू आएगा।
..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"
(चित्र- सभार गुगल )

Friday, September 5, 2008

ये आईने भी........



जब सबने बेवफाई की, तो
आईने से दोस्ती कर ली,
मगर ये आईने भी,
दुश्मनी निभाते हैं,
जिन ख्वाबों से,
मैं डरती हूं,
उन ख्वाबों को ही,
दिखाते हैं,
पल-भर भी जो,
न ठहर सकें,
वो आशियां बनाते हैं,
फिर टूट कर,
बिखर जाते,
जो ख्वाब हम सजातें हैं।

..............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Wednesday, September 3, 2008

तेरे हाथ में जब मेरा हाथ हो

तेरे हाथ में मेरा हाथ हो
तब दोनों जहां का साथ हो
जीवन का एहसास हो
फिर से जीने का अभ्यास हो
छोटे जीवन की बात नहीं,
सदियों जीने की बात हो
छोटे छोटे इन हाथों की
छोटी-सी खुशियों का एहसास हो
अपने सपनों को पाने का
इन आखों में विश्वास हो
मैं खुद को तुझमें ढूंढ रहा
मुझे फिर बचपन की आस हो
तुझे खिलखिलाता देखकर
मुझको हंसने की चाह हो
तेरे हाथ में, जब मेरा हाथ हो।
................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, September 2, 2008

क्या तुमने देखा है, मां-बाबा को



आंखे खोज रही हैं उस मां को
जो बह निकली जलधारा संग
और पिता का भी कुछ अता नहीं
कहां है वो उसको पता नहीं
दिल में एक ही आस लिए
आखों में पाने की प्यास लिए
लिए ढूंढ रहा भाई को संग
इधर-उधर बदहवास लिए
छोटे कन्धों पर है छोटे का भार
अभी हुआ नही मैं दस बर्ष का भी
पूछ रहा हर एक से वो........
क्या किसी ने देखा है, मां-बाबा को
आंखों से बहती जल की धारा है
और होंठ सूख रहे हैं...
प्रकृति का प्रकोप ये देखो
मां-बाप से नन्हें बिछङ रहें हैं।
................

प्रीती बङथ्वाल "तारिका "

"यह कविता सच्ची घटना पर है। बिहार में स्टेशन पर एक बच्चा, जिसकी मां पानी में बह गई और पिता का कुछ पता नही चल रहा है। वो अपने छोटे भाई के साथ स्टेशन पर बने राहत शिविर में रह रहा है। यहां पर खाने के लिए जो खिचङी मिल रही है उससे अपना और अपने छोटे भाई का पेट भर रहा। वहीं स्टेशन से मिली जानकारी से ये पुष्टि हो गई है कि उसकी मां का देहांत हो चुका है, लेकिन पिता के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चला है। वो स्टेशन पर सभी से यही पूछता रहता है कि उसके मां-बाबा कहां हैं? किसी ने उन्हें देखा है क्या? "

चित्र के लिए नितीश राज जी का आभार ये मेने उन्हीं के ब्लॉग से लिया है।

Monday, September 1, 2008

तेरी याद के आंसू रह गये


तू न रहा मेरे संग मगर,
तेरी याद के आंसू रह गये,
फूलों के मंका बनाये थे,
जो रेत के घरौंदों में ढह गये।
तू मुसाफिर नहीं था,
मेरी मन्जिल का,
जो इस तरहा से चला गया,
मेरी हर हंसी का तू ख्वाब था,
जो बिखर-बिखर के रह गये।
अभी दूर तक ही न गया था तू,
तेरे पांव रुक कर ठहर गये,
मेरे ख्वाब ने एक आस की,
होंठ मुस्कुराते रह गये।

तू रुका था एक पल के लिए,
फिर धुंध में कंही खो गया,
मेरी आंख में आंसू अभी-अभी,
मुस्कुरा कर बह गये।
तू न रहा मेरे संग मगर,
तेरी याद के आंसू रह गये।
...............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Thursday, August 28, 2008

फिर भी जीवन जी रहा


ये हवाऐँ छेङती है,
क्यों मुझे कुछ इसतरहां
सिमटा हुआ आँचल मेरा,
मचल उठता है बादलों में।

खुल रहे केसू भी,
जो अब तक कैद थे.
इन चोटियों में,
और लटें गुदगुदाने लगीं हैं,
कोमल कपोलों को मेरे।


दुर से आती हवाऐं,
ला रही पैगाम किसका,
जिसकी खुशबू की महक,
इन वादियों में बिखरी हुई है।

मैं करुं इंतज़ार उसका,
जो तसव्वुर में ही रहा,
न स्वप्न है न ही हक़ीकत,
फिर भी जीवन जी रहा।
...............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, August 26, 2008

मेरे किसी ख्वाब में

ऐसा नहीं कि,
तेरी याद में,
ये आंखे रोई नहीं,
इनको सज़ा मिली है,
ये अभी तक, सोई नहीं,
ये एक वक्त से खुली हैं,
बस इस इंतज़ार में,
शायद तू नज़र आए इन्हें,
मेरे किसी ख्वाब में।
................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Friday, August 22, 2008

जो मेरा नाम लिखा करता था


वो आईना,
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था,
अपने हाथों पे जो,
मेरा नाम लिखा करता था,
जाने कहां गई ,वो,
लकीरें मेरे हाथों से,
जिन लकीरों को,
वो हर शाम पढ़ा करता था।
अब शाम क्या,
सहर भी तन्हा थी,
रात की आंखों में सिर्फ,
डूबी हुई दास्तां थी,
गुम हुई है या वो,
मेरी आंखों का धोखा था,
अपनी ख्वाहिशों में क्या,
स्वप्न तस्वीरें डुबोता था,
वो आईना,
जो मेरी ख़ामोशियों को पढ़ता था।
....................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका "

Thursday, August 14, 2008

ये समन्दर बहुत गहरा है।

हमसे दोस्ती न करना,
सिर्फ आंसू ही पाओगे,
ये समन्दर बहुत गहरा है,
तुम इसमें डूब जाओगे।

इस समन्दर में कहीं भी,
साहिल नहीं मिलेगा,
सिर्फ टूटी हुई कश्ती होगी,
जिसमें मांझी को नहीं पाओगे।
हमसे दोस्ती न करना,
सिर्फ आंसू ही पाओगे।
...........
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Wednesday, August 13, 2008

तुमने, मुझे थाम लिया है।

तुम मेरे पास ही हो,
ये एहसास है मुझे,
कि अपने हाथों से,
तुमने, मुझे थाम लिया है,

जब भी डरता हूं,
तुम्हारी गोद में आ जाता हूं,
और अपनी आंखों को,
नन्हें हाथों से बंद कर लेता हूं,

मेरा रोना, तुम्हें,
बेचैन-सा कर देता है,
और एक शरारत,
मुस्कान-सी भर देता है,

मेरी तोतली बोली को,
बङे ध्यान से सुनते हो,
और बेतुके सवालों का,
तुम जवाब भी देते हो,

तुम मेरे पास ही हो,
ये एहसास है मुझे।
.............

प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, August 12, 2008

मेरे आगोश में........

कुछ तो बात होगी,
जो, खामोश तन्हाईयां हैं,
मेरे आगोश में जाने,
ये किसकी,
बिलखती परछाईयां हैं।
जो मेरे आंसूओं को,
अपनी यादों में डुबो रही हैं,
शायद, वो भी मेरी तन्हाईयों में,
मेरे साथ रो रहीं हैं।
जिसकी सिसकियां मेरे दर्द की,
आवाज़ बन गई हैं,
जिसकी मुस्कुराहट मेरे आंसुओं का,
टूटा साज़ बन रही हैं।
जाने ये कौन-सी तन्हाईयां हैं,
मेरे आगोश में जाने,
ये किसकी,
बिलखती परछाईयां हैं।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Monday, August 11, 2008

सच ऐ ख्वाब...वो तुम हो...

खामोश निगाहों का सपना तुम हो,
जिसको भुला न सकूं, वो अपना तुम हो,
जिसकी हर बात, मेरी तन्हाईयों को छू ले,
सच ऐ ख्वाब, वो तुम हो,
वो तुम हो, वो तुम हो।

जिसकी धङकन की आवाज़,
सिर्फ मैं सुनूं ,दिन और रात,
जिसके आने की राह तकें,
ये आंखे बार-बार,
जिसकी खुशबू का पता,
बहारें मुझको दें जांए,
सच ऐ ख्वाब वो तुम हो,
वो तुम हो वो तुम हो।

जिसका अफसाना मेरे हयात के,
पैमाने में भरा हो,
जिसको पी कर मेरा गम भी,
दीवाना बन गया हो,
मेरे माज़ी के हर पन्ने पे,
लिखी जिसकी दास्तां,
सच ऐ ख्वाब, वो तुम हो,
वो तुम हो वो तुम हो।
...............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Saturday, August 9, 2008

सिर्फ इंतज़ार होगा.......

कुछ ख्वाब,
जो एक उम्मीद के सहारे थे,
वो, जो अपनी मंजिल से,
कुछ दूर, किनारे पे थे,
शायद इस इंतज़ार में थे,
कि उनको भी कोई सहारा देगा,
अपनी कश्ती से,
उनको भी किनारा देगा,
न मालूम था,
कभी न खत्म होने वाला,
ये इंतज़ार होगा,
ये इंतज़ार एक बार नहीं,
बार-बार होगा,
जब तक कि ये आंसू थम न जाए,
जब तक कि ये सांसे रुक न जाए,
सिर्फ इंतज़ार....इंतज़ार......
इंतज़ार होगा।
...............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Thursday, August 7, 2008

यही तो हमारी नादानी थी.......


ग़म जो लिखे थे क़िस्मत में,
तो खुशियां कहां से आनी थी,
ख़ाबों को हक़ीकत समझ बैठे,
यही तो हमारी नादानी थी,
मिट्टी का घरौंदा था जिसमें,
ख़ाबों को हमने सजोया था,
पल-पल की खुशियों को जिसमें,
मोतियों जैसे पिरोया था,
शायद तक़दीर को उसमें,
लिखनी, और ही कहानी थी,
छोटे-छोटे उन ख्वाबों की,
बङी-सी कब्र बनानी थी,
ग़म जो लिखे थे क़िस्मत में,
तो खुशियां कहां से आनी थी।
.....................
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Wednesday, August 6, 2008

काश..... "वो" भी प्रेजीडेंट होते।

हम जिस समाज में रहते हैं वहां कदम-कदम पर पॉलिटिक्स के पहलवान नजर आ जाते है। हालांकि मैं इस विषय से कोसो दूर रहती हूं और इसलिए इसके दावं पैंच से वाकिफ भी नहीं हूं। लेकिन अपनी साधारण सी जिन्दगी में इसका स्वाद हाल ही में चखा, तो लगा कि काश...मेरे ‘वो’ भी प्रेजीडेंट होते,हमारी रेजीडेंसियल सोसायटी के। पहले कभी इस इच्छा का जन्म मेरे अंदर नहीं हुआ, पर आज लगता है काश....।
अभी फिलहाल की ही बात है, हमारी सोसायटी में तीज का त्यौहार मनाया गया। इसमें ‘तीज क्वीन’ कॉन्टैस्ट रखा गया। काफी महिलाओं ने इस में भाग लिया। मैं भी उनमें शामिल हो गयी। सोचा साफ-सुथरा सीधा-साधा सा प्रोग्राम होगा, शामिल हो लेते है और साथ के लोगों ने भी काफी जोर दिया हुआ था। सो मैं भी लग गयी लाइन में। पूरा सोलह श्रंगार कर, सज-धज कर पहुंच गये। शुरूवात में ही बारिश की बौछार ने हम सभी का स्बागत किया। लगा प्रोग्राम फ्लॉप न हो जाए लेकिन कुछ समय बाद बरखा रानी थम गयी। और हम आधे भीगे-आधे सूखे से, प्रोग्राम में शामिल हो गये। कुछ लोग काफी समझदार थे वो बारिश रुकने के बाद ही पहूंचे थे। हम जैसे एक दो और बेवकूफ थे जो समय पर आकर बारिश की साजिश का शिकार हुए। वैसे पहली बार ही इस त्यौहार को इस तरह जोर शोर से किया जा रहा था। सो पूरी सोसायटी में रोमांच था कि ये शो कैसा होगा। करीब 750-800 परिवार रहते हैं हमारी सोसायटी में। सब को उम्मीद थी की जरूर से हिट होगा। इस कार्यक्रम के कई रूल बनाए गए थे। प्रोग्राम की रूप रेखा काफी अच्छी थी। आपको सोलह श्रंगार के साथ साथ गाना गाना, डांस करना, सवालों के जवाब देना, आदि कई कसौटियां थी जिस पर परख कर ही तीज क्वीन चुनी जानी थीं।
धिरे-धिरे ये प्रोग्राम आगे बढने लगा और हम सब को, जो कि तीज क्वीन में भाग लेने आये थे एक-एक नम्बर थमा दिये गये। अपने नम्बर के साथ सभी लाइन से स्टेज पर खङे हो गए। वैसे पहले ही राउंड में काफी महिलाएं बाहर होगई और कुल 10 महिलाएं ही बची रह गई, उनमें मैं भी थी। अब बारी थी डांस और गाने की। कुछ ने डांस किया, कुछ ने गाना गाया और कुछ ने कुछ भी नही किया। मैंने दोंनो में नाम लिखा रखा था तो मेरा डांस गाना दोंनो ही थे। जिसे जो आता है वो ही करना था। मगर मुझे डांस के लिए तो बोला गया पर गाने के लिए हीं बुलाया गया। मैं एक बार उन्हें बताने भी गई लेकिन फिर भी मुझे गाने के लिए नही कहा गया। पता नही क्या हो रहा था। लेकिन मैं, दोंनो ही में वहां खङे सभी 10 में सबसे अच्छी थी, ये वहां बैठे सभी लोगों ने, मुझसे मेरा डांस देखने के बाद ही कहा था। तो लगा शायद मैं तीजक्वीन के खिताब के सबसे ज्यादा नजदीक हूं । जैसे-जैसे समय नजदीक आ रहा था सभी की उत्सुकता बढती जा रही थी। यहां वोटिंग से तीज क्वीन चुनी जानी थी। सभी को माइक द्वारा अपना नाम और नम्बर बताना था। लेकिन एक लेडी स्टेज से उतर कर लोंगो के पास जा जा कर घूम रही थी और उसपर ओपजैक्सन करने वाला कोई भी नहीं। उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
कुछ समय बाद नतीजे आने शुरू हुए। डांस में मेरा और मेरे साथ वाली का नाम आया लेकिन गिफ्ट तो एक था सो दोंनो के नाम की चिट डाल कर निकाली गई वहां किस्मत ने साथ छोङ दिया। काफी इंतजार के बाद जिसके लिए इतना श्रंगार किए हुए थे, वो घङी आ ही गई। उसमें भी बाजी उसके हाथ आयी जिसने न तो डांस किया और न ही गाना गाया, साथ ही ये वही बहन थीं जो घूम घूम कर अपना प्रर्दशन कर रही थीं। इससे बङी खबर तो हमें बाद में पता लगी कि वो सोसायटी के प्रेजीडेंट की बहू थी जो पूरे सोलह श्रंगार में भी नही थी, जिसके लिए हमने सारा दिन लगा दिया था। और तो और हद वहां नजर आई जब साथ के लोंगो ने बताया कि उनकी ननद, भाभी का नम्बर पर्ची पर लिखवाने के लिए सभी को फ्रैंडशिप बेंड बांध रही थी। वाहजी वाह प्रेजीडेंट की बहू होने का इतना बङा फायदा कुछ न करो तब भी सब कुछ मिले।
इस ‘तीज क्वीन’ प्रोग्राम की वजह से ही मैं कुछ दिन से ब्लॉग नही लिख पा रही थी। समय मिला तो लगा अब आप सब के साथ अपने मन की बात बतलाऊं। अगर ऐसे ही किसी प्रतियोगिता को जीता जा सकता है तो काश मेरे ‘वो’ भी प्रेजीडेंट होते तो मेरा ताज भी कहीं नहीं गया होता।
प्रीती बङथ्वाल

Saturday, August 2, 2008

ये ख्वाब...मेरे......

मेरे बाद भी होंगे ये ख्वाब,
जो मेरी आंखों में, हैं अभी,
बहेंगे उस तरह ही,
मन के सागर में,
बहते हैं, जैसे अभी,

ओंस की बूंदों की आंखों से,
नमी को चुराकर,
सांस लेगे, वो फिरसे,
इस ज़मी और इन वादियों में,

हर जगह रहेंगे ये ख्वाब,
जो दिखेंगे नहीं,
मगर महसूस होंगे उसे,
जो चाहेगा इन्हें,मेरी ही तरह,
ये ख्वाब......, मेरे बाद भी होंगे.....

.............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Thursday, July 31, 2008

आंसू,गम,और मैं..........



वो देखो, फिर चल पङी खुशियां,
दामन को मेरे झाङ कर,
आंसुओं के सागर में,
ख़ाबों की कश्ती डाल कर,
वो देखो, चल पङी खुशियां,
दामन को मेरे झाङ कर।
फिर वही ग़म,
जो पहले भी मेरे साथ था,
पहले से भी ज्यादा जिसमें,
दर्द का आभास था,
वो पलकें जो आंसुओं को,
कब से थामे हुई थी,
आज फिर उनमें,
नमी का एहसास था,
अब वही मैं थी, वही आंसू,
वही ग़मों ने घेरा था,
आज मेरे पास सिर्फ यादें थी,
और यादों का बसेरा था।
सिर्फ यादों का बसेरा था ।।
..........

प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Tuesday, July 29, 2008

ये म्यारा पहाङ है.........



ये म्यारा पहाङ है,
ये म्यारा पहाङ...
हरी-हरी वसुन्धरा पे,
खिल रहें जो फूल से,
हवा भी बह रही है, जहां
छू के, बर्फ को सकून से,
अमृत सी हर बूंद जंहा,
कर रही श्रंगार है....,
ये म्यारा पहाङ है,
ये म्यारा पहाङ...

ये ऊंचे-ऊंचे वृक्ष यहां,
अपने में इसकी शान है,
यहां फल और फूल ही क्या,
यहां जङी-बटियों की खान हैं,
ये म्यारा पहाङ है,
ये म्यारा पहाङ...
............

प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Monday, July 28, 2008

बस मां के पास...........


वो डबडबाती आंखे,
वो बिलखती आंखे,
खून से सनी वो,
हैं किस बच्चे की सांसे।

जो पुकारता किसी अपने को,
जो ढूढंता किसी अपने को,
जिसे देख कर कोई भी,
जान न पाये उसे,और उसके अपने को।

मां...आ...मां...आ...का रूदन करता वो,
बिना सांस लिए दोहराये,
वो प्रश्न लिए आंखों में,
सब ओर यूं तकता जाये,

शायद, कोई अपना देख रहा हो,
जो पास उसके आ जाये,
और गोदी में उसे उठा कर,
बस, मां के पास ले जाये।
बस, मां के पास.............
..........
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Friday, July 25, 2008

ख़ाब के पन्नों पे.........

ज़मी पर बिछी,
रेत के आंसुओं से बनी,
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी मुस्कुरा कर वो,
गुलाब की पंखुङी बनती,
तो कभी दर्द के आंसुओं से,
ओंस की बूंदे बनी थी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
कभी पत्थरों से भी,
खुशियों की आस करती,
तो कभी अपनी खुशियों को,
पत्थर बना बैठी।
वो मेरी तन्हाईयों की,
आवाज़ भी न बनी थी,
कि अपने जले पन्नों का,
मातम मना बैठी।
जिन्दगी मेरी,
जो ख़ाब के पन्नों पे लिखी थी।
............
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Thursday, July 24, 2008

इसी इंतज़ार में............


रूठी इन तकदीरों में,
हंसी भी मुस्कुरायेगी,
इसी इंतजार में शायद,
जिन्दगी बीत जाएगी।
कुछ खुले पन्ने थे,
तकदीर के रास्ते में,
जो जल गये थे शायद,
किसी हादसे में।
आंसुओं की बारिश थी,
पलकों की परछाइयों में,
फिर वही ख्वाहिश थी,
मेरी तन्हाइयों में।
शायद वो हवा फिर आएगी,
जो मेरी तन्हाइयों के साथ,
मुस्कुरायेगी,
इसी इंतजार में शायद,
जिन्दगी बीत जाएगी।
…………
प्रीती बङथ्वाल “तारिका”

Sunday, July 20, 2008

एहसास हो रहा है.......

पहले भी तेरे दर्द का,
एहसास था मुझे,
आज भी उस दर्द का,
एहसास हो रहा है।
आखों में नमी थी,
उस वक्त भी मेरे,
आज भी उस नमी का,
एहसास हो रहा है।
जो खा़ब कल तेरे थे,
आज मेरी आखों में नजर आते है।
जिन एवानों को तूने बनाया था,
उनको आज हम सजाते हैं।
ख्वाहिश है तेरे मंका में,
एक तस्वीर ही बन जाऊं।
कभी तो तेरी नजरें करम होंगी,
और मैं भी एक बार संवर जाऊं।
रात के तसव्वुर में,
ये सफर हो रहा है।
आखों में नमी थी,
उस वक्त भी मेरे,
आज भी उस नमी का,
एहसास हो रहा है।
...........
प्रीती बङथ्वाल "तारिका"

Friday, July 18, 2008

भुलाये न गए.......



मुझसे मेरी तन्हाइयों के,
खाब भी भुलाये न गए,
दिल में जो ज़ख्म थे,
आखों से छुपाए न गए,
महफिलों में रहकर भी,
जिन्हें भूलना चाहा,
यादें ऐसी थी कि,
जो भूल कर भी भुलाये न गए।
टीस के मोती बन गये हैं,
दिल के आस-पास,
अब वो तूफान उबल रहे हैं,
दिल के आस-पास,
जिनकी रूहों को हमने,
तारीक़ में छुपाया,
मगर फिर भी वो,
हमसे छुपाये न गए,
यादें ऐसी थी कि,
जो भूल कर भी भुलाये न गए।


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प्रीती बङथ्वाल "तारीका"

Thursday, July 17, 2008

कुछ पन्ने मेरी किताब के.......

भाग 4- वो खुशी के पल...

“क्या चारा करें, क्या सब्र करें, जब चैन हमें दिन रात नहीं,
ये अपने बस का रोग नहीं, ये अपने बस की बात नहीं।”




बहुत कशमकश के बाद और बङी हिम्मत के साथ अपने सवालों के डर से बाहर निकल कर हमने घर पर फोन करके बात करना उचित समझा ताकि सही हालात का जायजा मिल सके। फोन पापा ने ही उठाया और पापा से मेरी बात हुई। उनसे पता चला कि मेरी बहन शादी के बाद पहली बार घर रहने आई हुई है और वो हमारा घर पर आना पसन्द नही करेगी। हम जान गए की हम घर नही जा सकते थे। हमने भी मौके की नजाकत को समझते हुए घर न जाने का फैसला किया। लेकिन मन में फिर उदासी ने अपना डेरा जमा लिया और काफी देर तक यही सोच कर आंखें नम होती रही कि ये कैसी किस्मत है, ना तो वो ही आ सके और ना ही, हम जा सकते हैं। ऐसा कब तक होता रहेगा? सोचते हुए मैं अपने में खोती चली गयी। कब नींद ने मुझे अपनी आगोश में ले लिया मुझे पता ही नही चला, कुछ देर बाद जैसे किसी ने मुझे आवाज़ दे कर जगाया हो। ‘वो’ मेरे पास ही बैठे हुए थे और मेरा सर धीर-धीरे सहला रहे थे। मेरी हालत उनसे छुपी नहीं थी ‘वो’ बोले, ‘उदास होने की जरूरत नहीं है अगर हम घर नही जा सकते तो कोई बात नहीं, कहीं बाहर तो मिल ही सकते हैं’। मुझे भी ये बात ठीक लगी, आखिर बहुत न सही तो थोङा ही सही, थोङे में भी खुश रहना चाहिए। अब इंतजार किसी मौके का था।
कुछ दिनों बाद ही हमें ऐसा मौका मिल भी गया, जिसका हम काफी समय से इंतजार कर रहे थे। हमारा घर के पास के मार्केट में जाना हुआ और हमने वहां पहुंच कर पापा के मॉबाइल पर फोन किया। हमने उन्हें बताया कि हम किसी काम से यहां आये हुए है अगर आप भी आ सके तो हमारा मिलना भी हो जायेगा। उधर से कोई सही-सा जवाब नहीं मिला, लेकिन दिल उनका भी हमसे और हमसे ज्यादा नाती से मिलने का हुआ। इसलिए मुझे महसूस हुआ कि वो जरूर आयेंगे।
जैसा सोचा था बैसा ही हुआ। जैसे ही हम अपनी खरीददारी करके जाने लगे तभी मोबाइल की घंटी ने हमें अपनी ओर खींचा। फोन पापा का ही था। पापा हमसे मिलने आए थे। निश्चित जगह पहुंचने के बाद देखा तो आंखों को यकीन ही नहीं हुआ। मैं तो गिर ही गई होती यदि ‘वो’ मुझे सहारा न देते। पापा और मम्मी दोंनो ही हमसे या यूं कहें कि सूद से मिलने आये थे। उनको आता देख मैं ही नहीं ‘वो’ भी यकीन नहीं कर पा रहे थे। कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे। हम दोनों की आंखें खुशी के कारण भीग गईं। हमने उन्हें प्रणाम किया। हमें आर्शीवाद देते हुए भी उनकी आंखें अपने नाती पर लगी हुई थी। जैसे किसी खिलौने को लेने के लिए बच्चे के हाथ मचलते हैं वैसे ही उन्होंने नाती को गोद में लेकर प्यार करना शुरू किया। आखिरकार मेरी ये इच्छा पूरी हो ही गई। खुशी से हम सभी की आंखे, हंस भी रही थी और रो भी।

“ये सच है ज़ब्त में जी को डुबोया भी नहीं जाता,
मगर अब तो ये आलम है कि रोया भी नहीं जाता।
खुशी आए तो गम को भूल जाना ही मुनासिब है,
मगर गम को मुसर्रत में समाया भी नहीं जाता।”


प्रीती बङथ्वाल

Tuesday, July 15, 2008

15-जुलाई, जन्मदिन मुबारक़ हो।


बाहें फैलाये नई उम्र का,
सावन है खङा।
अब जागो नींद से,
उम्र का एक साल और बढा़।

कब तक तकिये पर सर रखकर,
तुम बचपन में सोती रहोगी।
कब तक आंगन की माटी से,
नंगे पैरो को धोती रहोगी।
अब यौवन के फूल खिले हैं,
फूलों के रंग से खेलो भी।
अब इठलाती मदमस्त हवा है,
उनके आंचल में झूलो भी।

बारिश की इन बौछारों से,
ऊपर बैठा ‘वो’ बोल रहा।
“तारिका” तुम भी खुश रहना
सीख ही लो,
इन बारिश की बूंदों की तरहा।

प्रीती बङथ्वाल “तारिका”

उन सभी पाठकों को जो मेरी तरह आज जन्मदिन के अवसर पर बधाई के पात्र है। मेरी तरफ से सभी को शुभकामनायें।

Monday, July 14, 2008

ये वो जिन्दगी......

विराने में कंही खो गई थी,

शायद ये वो जिन्दगी थी,
जो उदास बैठी, कंही रो रही थी।
रेत के समन्दर में, जिसका घरौंदा था,
समय की आन्धियों ने जिसको,
बार-बार, पैरों तले रौंदा था,
आज फिर वो, आशियाने की तलाश में थी,
आज फिर वो, मस्ती में थी, बहार में थी,
आज फिर उसकी आखों में, नमी थी खुशी की,
आज फिर वो, किसी के इंतज़ार में थी,
नन्हें सपनों को जिसने, आखों में संजोया था,
अपनी खुशियों को जिसने, बार-बार खोया था,
आखों में सपने लिए, आज फिर वो राह में खङी थी,
उसकी आखों में आंसू नहीं,.....
टूटे सपनों की बिखरती लङी थी,
दर्द की स्याही से, जिसने कहानी लिखी थी,
बीते लम्हों की दास्तां, बेजुबानी कही थी,
आज फिर उसकी कहानी में, नया मोङ आया था,
कांटों में जैसे, गुलाब का फूल खिल आया था,
रात भी तारों की लङी लेकर आई थी,
शायद आज फिर, उसकी किस्मत मुस्कुराई थी,
इन्तजार की घङीयां खत्म हुई, परछाई साफ हो गई,
शायद “तारिका” जिन्दगी तेरी,.......
एक प्यारा-सा ख़ाब हो गई।

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प्रीती बङथ्वाल “तारिका”